(Published on BBC Hindi, 14 फरवरी 2015)

प्रफुल्ल बिदवई

ऐसा 25 साल में दूसरी बार हुआ जब एक उभरती हुई राजनीतिक शक्ति ने भारतीय जनता पार्टी का बढ़ता रथ रोका है.

साल 1990 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा को समस्तीपुर में रोक दिया था क्योंकि इससे बहुत खूनखराबा हुआ था.

अब आम आदमी पार्टी ने नरेंद्र मोदी के विजय रथ को दिल्ली में रोक दिया है.

'आप' कई मायनों में वामपंथी दलों सी नज़र आती है लेकिन क्या दोनों के बीच समझौते, गठबंधन की कोई संभावना है? पढ़ें यह विश्लेषण. 'आत्मिक रिश्तेदार'

आडवाणी का रथ रोके जाने और दिल्ली में 'आप' की जीत में एक फ़र्क है. आडवाणी का रथ रोके जाने के तुरंत बाद भाजपा ने केंद्र की वीपी सिंह सरकार गिरा दी थी क्योंकि वह इस पर निर्भर थी.

इससे घटनाओं का एक सिलसिला शुरू हुआ, जिसमें अस्थिर गठबंधन सरकारें भी शामिल थीं. इसकी परिणति में भाजपा के भाग्य ने पलटा खाया और यह 1998 में सत्ता में आ गई.

इस बार, 'आप' के हाथों भाजपा की शर्मनाक हार लोकसभा चुनाव के बाद से इस हिंदुवादी पार्टी को सबसे बुरा झटका है.

प्रधानमंत्री बनने के बाद से यह मोदी की रणनीति की सबसे बड़ी हार है. हालांकि 'आप' ने सीधे-सीधे हिंदुत्व को चुनौती नहीं दी पर मोदी की अपील की धार कुंद कर दी.

ख़ासतौर पर 'आप' जनता को यह समझाने में सफल रही कि मोदी अमीरों के समर्थक हैं.

हिंदुवादियों की बढ़त रोककर और ग़रीब समर्थक नीतियों के साथ 'आप' गाहे-बगाहे वामपंथी दलों के ही पारंपरिक कार्यक्रम को आगे बढ़ा रही है.

'आप' ने ग़रीबों के बीच एक मज़बूत आधार बनाया है. वामपंथी भी ग़रीबों को अपना प्राथमिक आधार और राजनीतिक कार्यक्षेत्र मानते हैं.

इसलिए अचरज की बात नहीं कि माकपा और भाकपा के नेतृत्व वाले वामदलों के छह दलीय गठबंधन को 'आप' अपनी आत्मिक रिश्तेदार नज़र आती है.

गठबंधन ने 'आप' को दिल्ली की 70 में से उन 55 सीटों पर समर्थन दिया जहां उसके उम्मीदवार नहीं थे. इन दलों ने अपने सदस्यों को लोकसभा चुनाव में भी 'आप' को वोट देने को कहा था.

इन दलों ने पहले पहल 'आप' की जीत का स्वागत किया और वो भी दिल से. 'दोनों को फ़ायदा'

हालांकि 'आप' ग़रीब समर्थक और व्यवस्था विरोधी दल है लेकिन यह सामाजिक, लोकतांत्रिक या कम्युनिस्ट तर्ज का वामपंथी दल नहीं है.

'आप' की तुलना यूनान में हाल में सत्ता में आई धुर वामपंथी पार्टी सीरिज़ा से की जा रही है लेकिन यह उतनी अतिवादी नहीं है.

'आप' की आधिकारिक स्थिति यह है कि वह किसी वाम या दक्षिणपंथी 'विचारधारा' को नहीं मानती, बाज़ार समर्थक या विरोधी नहीं है, उत्पादन के मुख्य साधनों पर सार्वजनिक नियंत्रण की समर्थक या विरोधी नहीं है- जो सभी वाम दलों की विशेषताएं हैं.

हालांकि 'आप' कहती है कि वह संविधान के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन वह इस पर ज़ोर नहीं देती कि सांप्रदायिकता संवैधानिक लोकतंत्र के लिए बड़ा ख़तरा है.

वामदलों में से बहुत के लिए भाजपा कांग्रेस से बड़ा ख़तरा है, लेकिन 'आप' के लिए दोनों समान रूप से बुरे हैं.

तो क्या 'आप' और वामदल साथ चल सकते हैं? क्या 'आप' का वर्तमान विजयोल्लास और भविष्य में विस्तार गठबंधन की संभावनाएं पैदा करता है? क्या इससे वामदल उस भयानक बहुपक्षीय संकट से उबर सकते हैं जिसका वे सामना कर रहे हैं और 'आप' को बढ़ने में मदद कर सकते हैं?

दोनों पक्षों के बीच संवाद न होने के कारण इन बातों का जवाब विश्वास के साथ देना आसान नहीं.

एक संभावित जवाब यह हो सकता है कि स्वस्थ नीतिगत चर्चा और आम सहमति के मुद्दों पर साझा संघर्ष से दोनों को फ़ायदा हो सकता है- जैसे शिक्षा, भोजन, स्वास्थ्य और सफ़ाई सुलभ करवाने को लेकर, रोज़गार और कौशल निर्माण कार्यक्रमों की मांग को लेकर, सुचारू, सस्ते सार्वजनिक परिवहन, पैदल यात्रियों के अधिकार, सुरक्षित सड़कों के अभियान के लिए, प्रदूषण के ख़िलाफ़ अभियान और स्वच्छ, पर्यावरण अनुकूल ऊर्जा प्रणाली को लेकर. 'नैतिक शक्ति'

इसके लिए वामदलों को लोगों के जीविका से जुड़े मुद्दों पर वैचारिक रूप से जुदा 'आप' जैसे दलों के साथ मिलकर अभियान चलाने को तैयार रहना होगा.

दूसरी तरफ़ 'आप' को अपनी हेकड़ी और अपने 'राजनीति विरोधी' या 'सभी को दोष देने' का अपना तरीक़ा बदलना होगा और दूसरे दलों के साथ काम करने की ज़रूरत को स्वीकार करनी होगी.

उदाहरण के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक से लड़ने के लिए व्यापक राष्ट्रीय लामबंदी की ज़रूरत है, जो एक पार्टी नहीं कर सकती.

अगर ये दोनों साथ काम करें तो यह राष्ट्रीय राजनीति में एक नैतिक शक्ति को फिर स्थापित कर सकते हैं, जिससे 'आप' सबसे नज़दीक नज़र आती है.

वामदल कभी ऐसी ही शक्ति हुआ करते थे लेकिन अब वे चुक चुके हैं और सत्ता के प्रति बेअदबी, जन्म से मिलने वाले विशेषाधिकार और अनुक्रम का विरोध करते हुए चरमपंथी हो चुके हैं, जुनून की हद तक समतावादी हैं और लोगों को ज़्यादा अधिकार और सत्ताधारियों को ज़्यादा जवाबदेही के ज़रिये 'विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र' के बड़े-बड़े दावों को ज़मीन पर लाने को तैयार नज़र आते हैं.

ऐसी शक्ति की ज़रूरत आज से ज़्यादा पहले कभी नहीं थी.